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भारत की हालत भी एक समय पर आज के श्रीलंका जैसी होने को थी, आर्थिक संकट से ऐसे बचा था देश

90 के दशक (1991 Indian economic crisis) में भारत का विदेशी क़र्ज़ 72 अरब डॉलर पहुंच चुका था। ब्राज़ील और मेक्सिको के बाद हम दुनिया के तीसरे सबसे बडे़ कर्जदार देश थे। लोगों का भरोसा सरकार और अर्थव्यवस्था से खत्म होने लगा था। महंगाई बुरी तरह मुंह फाड़ने लगी थी तो राजस्व घाटा बढ़ा हुआ था। उस समय इसकी वजह तत्कालिन अंतरराष्ट्रीय समस्याएं थीं। 1990 में खाड़ी युद्ध (Gulf War in 1990) शुरू हुआ। इसका असर भारत पर भी पड़ा।

देश में सियासी अस्थिरता का दौर था

1990-91 में भारत को जो पेट्रोलियम आयात का बिल 2 अरब डॉलर होने की उम्मीद थी, वो इस लड़ाई के चलते दोगुने से भी ज्यादा बढ़कर 5.7 अरब डॉलर हो गया। इस लड़ाई के चलते भारत को बडे़ पैमाने पर अपने लोगों को विमान से वापस स्वदेश लाना पड़ा। जो मोटी कमाई भारतीयों की खाड़ी देशों में नौकरी से यहां आती थी, वो तो बुरी तरह प्रभावित हुई। उसी समय देश में सियासी अस्थिरता का दौर भी चरम पर था।

वीपी सिंह के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनी

1989 के आम चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को सबसे ज्यादा सीटें जरूर मिलीं लेकिन वो बहुमत से पीछे थी। 197 सीटें मिलने के बाद भी उन्होंने गठबंधन सरकार बनाने से राजीव गांधी ने मना कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी जनता दल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनाई। जनता दल को 143 सीटें मिली थीं। तब 85 सीटें पाने वाली BJP के साथ मिलकर उन्होंने सरकार बनाई।

बैंकों ने ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर दी

फिर भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। दिसंबर 1990 में वीपी सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ा। मई 1991 में आम चुनाव होने तक देश में चंद्रशेखर की केयरटेकर सरकार रही। इसी राजनीतिक अस्थिरता के बीच 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। भारत की हालत ऐसी हो गई थी कि एनआरआई पैसा वापस खींचने लगे थे। निर्यातकों को लगने लगा था कि भारत उनका उधार नहीं चुका पाएगा। बैंकों ने ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर दी।

47 टन सोना गिरवी रखना पडा

MIF से भारत को 1.27 अरब डॉलर का क़र्ज़ मिला। हालात तब भी काबू में नहीं आए। देश के पास उबरने के लिए कोई रास्ता नहीं था। वो कभी भी दिवालिया हो सकता था। सबसे चिंता की बात थी कि तेल आयात करने के लिए महीनों नहीं केवल चंद दिनों कि विदेशी मुद्रा हमारे पास बचा था। आखिरकार चंद्रशेखर की सरकार 47 टन सोना गिरवी रखने पर मजबूर हो गई जिससे विदेशी कर्ज की अदायगी की गई।

1991 में कई आर्थिक सुधार किए गए

पीवी नरसिम्हा राव 21 जून 1991 में प्रधानमंत्री बने तो ऐसा लग रहा था कि भारत विदेशी क़र्ज़ तय समय पर नहीं चुका पाएगा। डिफ़ॉल्टर घोषित हो जाएगा। तब राव सरकार ने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के साथ मिलकर कई आर्थिक सुधार किए। जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़ा फेरबदल हुआ और अर्थव्यवस्था पटरी पर आने लगी। फिर उन्होंने ना केवल विदेशी मुद्रा का भंडार भरा बल्कि गिरवी रखे सोने को वापस भी छुटाया। नई आई पीवी नरसिंहराव सरकार ने तस्वीर ही बदल दी। 90 के दशक के आखिर में जब देश ने बाहरी दुनिया के लिए अपना बाजार खोला और नई आर्थिक नीतियां बनाईं तो हमारा विदेशी मुद्रा का भंडार फिर तेजी से भरने लगा।

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