हरड़ को संस्कृत में हरीतकी, अभया पथ्या, अम्रता, अव्यथा, शिवा, वयस्था, विजया, जीवन्ती, रुद्रप्रिया, प्राणदा, जीव्या, देवी, गिरि इत्यादि कहते हैं। हरड़ के वृक्ष उत्तरी भारत, बंगाल, मुम्बई प्रान्त, कोकण, मद्रास, के प्रेसीडेन्सी, काठियावाड़ इत्यादि भारत के अनेकानेक स्थानों में पैदा होते हैं।
मगर हिमालय और पार्श्वनाथ पहाड़ पर पैदा होने वाली हरड़ उत्तम होती है। इसका वृक्ष बहुत ऊंचा होता है। इस वृक्ष का पिण्ड लम्बा और सीधा होता है। इसकी छोटी शाखों से निकलते हुए पत्तों और छोटे कोमल पत्तों पर लोहे के जंग के समान और कभी-कभी रूपहरी रंग के रुएं होते हैं।
इसके अलग-अलग थोड़ी-थोड़ी दूर पर अड़से के पत्तों के समान अथवा धावड़ी के पत्तों के समान तीन से आठ इंच तक लम्बे पत्ते लगते हैं। इसके फूल थोड़े सफ़ेद अथवा पीले रंग के होते हैं। उनमें बहुत दुर्गन्ध आती है। इसका फल एक से लेकर दो इंच तक लम्बा होता है।
एक फल पर पांच स्पष्ट रेखाएं होती हैं। इन वृक्षों पर एक प्रकार के अपरिपक्व काली द्राक्षा के समान फल लगते हैं। ये सूखने पर काले, लम्बगोल, बांके टेढ़े और छोटे-छोटे होते हैं। इन्हें मराठी में बाल हरड़ और हिन्दी में जौ हरड़ कहते हैं। इसका विरेचन के द्रव्यों में विशेष उपयोग होता है।
आयुर्वेदाचार्यों ने हरड़ को सात जातियों में बांटा है, जिसके नाम हैं-विजया, रोहिणी, पूतना, चेतकी, अमृता, अभया और जीवन्ती। विजया हरड़ तूम्बी की आकृति के समान होती है, रोहिणी गोल होती है, पूतना हरड़ छोटी गुठली वाली होती है,
अमृता नामक हरड़ मोटी होती है, अभया हरड़ पांच रेखावाली होती है, जीवन्ती हरड़ स्वर्ण के समान पीले रंग की होती है और चेतकी हरड़ तीन रेखावाली होती है। विजया हरड़ भारत में सभी जगह पैदा होती है,
विशेषकर विजया हरण विन्ध्याचल में पैदा होती है। पूतना और चेतकी हरड़ हिमालय पर्वत में पैदा होती है। रोहिणी हरड़ सिन्धु नदी के तीर पर होती है। अमृता और अभया हरड़ चम्पा देश में बहुत होती है, जीवन्ती हरड़ सौराष्ट्र देश में उत्पन्न होती है।
हरड़ स्वाद में खट्टी, मीठी व कसैली होती है। स्वभाव से शीतल व रूखी होती है। हरड़ प्रत्येक समय मनुष्य को उसी प्रकार प्यार करती है, जैसे माता बालक को। माता तो बालक से कभी-कभी कुपित भी हो जाती है, मगर हरड़ मनुष्य से कभी कुपित नहीं होती है।
हरड़ सर्वगुण सम्पन्न होती है। यह आमातिसार, घाव, अग्निदग्ध, दंतरोग, रक्तपित्त, विषज्वर, बवासीर, मोतियाबिन्द, मुखरोग, पाण्डुरोग, वातरक्त और अण्डबुद्धि आदि अनेकों रोगों में लाभप्रद है।
हरड़ को कूटकर, चिलम में भरकर उसका धूम्रपान करने से दमे का दौरा मिटता है। हरड़ का मुरब्बा खिलाने से आमातिसार और मन्दाग्नि मिटती है। फैले हुए घाव को हरड़ के क्वाथ से धोने से वह सिमट जाता है।
हरड़ को पानी में घिसकर, उसमें क्षारोदक और अलसी का तेल मिलाकर, अग्नि से जले हुए या गरम जल से जले हुए स्थान पर लेप करने से घाव बहुत जल्दी अच्छे हो जाते हैं। हरड़, सनाय और गुलाब के गुलकन्द की गोलियां बनाकर ख से बद्धकोष्ठ मिटता है।
हरड़ के चूर्ण का मंजन करने से दांत साफ़ और नीरोग रहते हैं। हरड़ और कत्थे को मिलाकर चूसने से दांत मजबूत होते हैं। हरड़ की गुठली को पानी के साथ पीसकर लेप करने से आधाशीशी मिटती है।
इसकी छाल को महीन पीसकर अंजन करने से आंख से पानी का बहना बन्द हो जाता है। हरड़ को रात-भर पानी में भिगोकर प्रातः काल उस जल से आंख धोने से आंखें बहुत शीतल रहती हैं और उनकी ज्योति बढ़ती है।