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रोजाना सिर्फ 2 चम्मच श्वासरोग , सर्दी, खांसी और लीवर की गंभीर बीमारी से स्थायी राहत देता है

<p>ताम्बूल को हिन्दी में पान पत्रा&comma; नागरबेल का पात&comma; बगेलापान तथा संस्कृत में नागवल्ली&comma; नागिनी&comma; पर्णलता&comma; तांबूली&comma; सप्तशिरा तथा मुख भूषण कहते हैं। नागरबेल की एक लता होती है&comma; जिसके पत्ते गोलाई में तथा अग्र भाग नुकीला होता है।<&sol;p>&NewLine;<p>पान के बारे में सभी जानते हैं। यह कच्चे चूने के साथ खाया जाता है। यह गरम क्षेत्रों में मध्य भारत से लेकर दक्षिण में वनों में पायी जाती है। ताम्बोसी लोग इसकी खेती करते हैं। पान के खेत को पान का भीटा कहते हैं।<&sol;p>&NewLine;<p>पान स्वाद में चरपरा&comma; कड़वा&comma; मधुर तथा स्वभाव से गरम होता है। &&num;8211&semi; धर्म गुण- यह वात&comma; कृमि&comma; कफ को दूर करने वाला होता है। यह मुंह की दुर्गन्ध&comma; मल&comma; वात औ श्रम को दूर करता है। यह कामशक्ति को बढ़ाता है। यह दिल&comma; दिमाग&comma; जिगर औ स्मरणशक्ति को ताकत देता है।<&sol;p>&NewLine;<p>इसके खाने से दांत और मसूड़े मजबूत होते हैं। दमा&comma; खांसी मिटती है तथा गले को साफ करता है। यह त्रिदोषनाशक व जख्मों को भरने वाला होता है । अगर किसी व्यक्ति के अण्डकोष में पानी उतर आये&period; तो 5-6 बंगला पान गरम करके बांध देने से नयी बीमारी में बहुत फायदा होता है&period; जिससे 2-3 दिन में पानी बिखर जाता है।<&sol;p>&NewLine;<p>अगर ज्यादा गरमी मालुम पड़े&comma; तो एक-दो पान बांधने चाहिए और एक-दो रोज का फासला देकर बांधने चाहिए। पान की नसें शिथिलता करती हैं&comma; रक्त का शोषण करती हैं&comma; यहां तक कि पांच काली मिर्च के साथ बनाया हुआ पान की नसों का कल्क बवासीर के खून को तुरन्त रोक देता है।<&sol;p>&NewLine;<p>कत्था कफ और पित्त का नाशक है&comma; चूना वात और कफ का नाशक है और सुपारी कफ और पित्त को नाश करने वाली होती है। अतएव पान&comma; कत्था&comma; चूना और सुपारी मिलाकर खाने से तीनों दोषों का नाश होता है&comma; चित्त प्रसन्न होता है&comma; शरीर हल्का और मुख सगन्ध से युक्त होता है।<&sol;p>&NewLine;<p>पान की पहली पीक विष के समान दूसरी भारी और से युक्त होता है। पान की पहली पीक विष के समान&comma; दूसरी भारी दस्तावर है। अतएव पान की पहली और दूसरी पीक खाकर अवश्य थूकनी चाहिए। इसके बाद की सभी पीकों को लीलना गुणकारी है।<&sol;p>&NewLine;<p>शास्त्रों के अनुसार पान के अग्रभाग में आयु&comma; मध्य भाग में लक्ष्मीजी तथा पत्ते के मूल में यश का समावेश है&period; अतः पान का अग्र&comma; मध्य व पत्ते के मूल भाग खाने योग्य नहीं है। जब भी पान बनाकर खायें पत्ते के अग्रभाग की नोक&comma; डण्ठल&comma; पिछला भाग व मध्य भाग कैची से काट छांटकर खाना चाहिए।<&sol;p>&NewLine;<p>पान की जड़ खाने से व्याधि उत्पन्न होती है&comma; मध्य भाग में आयु तथा अग्रभाग से पाप होता है। पान का उपयोग कफप्रधान रोगों में विशेष रूप से होता है। खास करके दमा&comma; फुफ्फुस नलिका की सूजन और श्वास मार्ग की सूजन में इसका रस पिलाया जाता है और इसके पत्ते को गरम करके छाती पर बांधते हैं।<&sol;p>&NewLine;<p>बच्चों को सर्दी में भी पान के ऊपर अरण्डी का तेल लगाकर&comma; उनको जरा गरम करके छाती पर बांध देते हैं&comma; जिससे बच्चों की घबराहट कम हो जाती है और सदों का जोर मिट जाता है। गठानों की सूजन पर पान को गरम करके बांधने से सूजन और पीड़ा की कमी होकर गठान बैठ जाती है।<&sol;p>&NewLine;<p>व्रणों के ऊपर पान को बांधने से व्रण सुधर जाते हैं और जल्दी भर जाते हैं। पान का रस एक प्रभावशाली पीवनाशक वस्तु है। कारबोलिक एसिड की अपेक्षा इसका रस पांच गुना अधिक जन्तुनाशक है।<&sol;p>&NewLine;<p>&nbsp&semi;<&sol;p>&NewLine;

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