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बिना दवा के सभी प्रकार की बहती नाक, छींकने, सांस और फेफड़ों के रोगों के लिए 100% कारगर घरेलू उपाय

नील को हिन्दी में लील, गोली तथा संस्कृत में नील पुष्पिका, नीलिका, रक्तपुष्पी, रजिनी, श्यामा इत्यादि कहते हैं। नील के छोटे-छोटे पेड़ होते हैं। इसको खेती करके उगाया जाता है। इसके पत्ते छोटे-छोटे सरसों के समान, परन्तु कुछेक नीले रंग के होते हैं। इसकी फली टेढ़ी और गोल होती है।

इसकी डाली को कुण्डों और सीमेन्ट की बनी नालियों में सड़ाते हैं और इसी से नील बनत है। यही नील रंगने के काम में आता है। दूसरा इसका भेद महानील है। नील स्वाद में चरपरा व कड़वा होता है। स्वभाव से गरम होता है। यह स्मरणशक्ति को कम करता है।

इसके दर्प को मारने के लिए चन्दन लाल गूगल की हल्की मात्रा दी जानी चाहिए। नील काविज है तथा खुश्की लाता है। यह फेफड़े के लिए हानिकारक है। इसके दर्प को कम करने के लिए शहद और मुलैठी का सत्त उपयोगी है।

नील की औषधीय मात्रा तीन माशे की है। नील के पंचांग का लेप करने से बाल काले और बलवान बनते हैं। कटे हुए स्थान पर नीम के पंचांग का लेप करने से घाव भरकर सूख जाता है। सफेद कोढ़ पर इसका लेप करने से अच्छा फायदा होता है।

औषधीय उपयोग के अतिरिक्त नील का मुख्य प्रयोग रंगाई के लिए किया जाता है। यकृत और प्लीहा की वृद्धि में और जलोदर में इसकी जड़ को देने से यकृत की क्रिया सुधरती है, पेशाब की मात्रा बढ़ती है और पेट में जलन की कमी होती है।

बवासीर में इसकी जड़ को पेट में देने से और इसके तैयार किये हुए रंग को उबालकर अथवा इसके पत्तों को पीसकर लेप करने से बवासीर का संकोचन होकर उसका दर्द मिट जाता है। कुक्कुर खांसी और फेफड़े की सूजन में इसकी जड़ दी जाती है। मज्जा तन्तुओं के ऊपर इसका उपशामक असर होने से खांसी की कमी हो जाती है।

मज्जा तन्तुओं की खराबी से पैदा हुई हृदय की धड़कन में भी यह उपयोगी है। पागल कुत्ते के विष को उतारने के लिए इसके पत्तों का स्वरस दो औंस की मात्रा में तीन दिन तक प्रतिदिन सवेरे दिया जाता है और इसके पत्तों को पीसकर दर्द के स्थान पर लेप किया जाता है।

इतनी बड़ी मात्रा में इस औषधि को देने से रोगी को दस्त होते हैं और उसके सिर में चक्कर आते हैं। पागल कुत्ते के विष की यह चिकित्सा सारे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है और इसी से इसके झाड़ को पागल कुत्ते का झाड़ भी कहते हैं। चर्मरोग के अन्दर भी नील एक उपयोगी वस्तु है।

शरीर का कोई अंग भंग हो जाने पर नील को पानी में उबालकर उसका लेप किया जाता है। इस लेप से जलन और दर्द की कमी होती है और जख्म जल्दी भर जाता है। इस लेप से नवीन चमड़ी पहले के समान आती है और शरीर पर कोई निशान बाकी नहीं रहता।

दुर्भाग्य से मुक्ति पाने के लिए घर के बहार नील से उल्टा स्वस्तिक बनाया जाता है। घर के बहार नील और चूने से रंगोली बनाने से अलक्ष्मी घर से दूर रहती हैं। नीलगिरी तेल संक्रमण व जीवाणु के रोधक होते है। यदि दांतो में किसी प्रकार की समस्या हो जैसे: मसूड़ों में सूजन, कीड़े लगना, दांतो का दर्द इत्यादि जैसी समस्या को दूर करने में सहायता करता है।

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